भक्ति या विधि? जानिए क्यों महादेव ने शुद्ध पूजा को नहीं, बल्कि भाव को स्वीकारा : कन्नप्पा की अद्भुत श्रद्धा की कथा
हिंदू धर्म में महादेव के कई महान भक्तों का वर्णन मिलता है, लेकिन उनमें से एक ऐसे अनोखे भक्त भी थे, जिन्हें पूजा-पाठ की विधियों का कोई ज्ञान नहीं था। उन्होंने वह सब कुछ किया जिसे शास्त्रों में वर्जित और पाप माना गया है, फिर भी महादेव ने उन्हें अपने दिव्य दर्शन दिए। यह दर्शाता है कि महादेव केवल अपने भक्त की भावनाओं को देखते हैं, न कि उसकी पूजा की विधि को। इस अद्भुत भक्त का नाम था – कन्नप्पा।
कन्नप्पा के जन्म से जुड़ी कई कथाएँ प्रचलित हैं। माना जाता है कि उनका जन्म एक तमिल भील परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा नाग और माता का नाम उडुप्पुरा बताया गया है। दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में उनकी गहरी श्रद्धा और मान्यता है। वे उन 63 तमिल संतों में शामिल हैं जिन्हें “नयनार” कहा जाता है। कन्नप्पा की पत्नी का नाम नीला बताया गया है। वे एक शिकारी थे, जो शिकार करके अपने जीवन का निर्वाह करते थे। मान्यता है कि द्वापर युग में जब भगवान शिव ने अर्जुन की परीक्षा लेकर उन्हें पाशुपतास्त्र प्रदान किया था, तब अर्जुन ने प्रार्थना की कि वे अगले जन्म में शिव के महान भक्त बनें। भगवान शंकर ने उन्हें यह वरदान दिया। यही अर्जुन कलियुग में कन्नप्पा के रूप में जन्मे और महादेव के परम भक्त बने।
एक दिन कन्नप्पा शिकार करते-करते घने जंगलों में बहुत दूर निकल गए। वहां उन्होंने एक अत्यंत प्राचीन और जीर्ण-शीर्ण मंदिर देखा। जैसे ही वे मंदिर के भीतर पहुँचे, उनकी दृष्टि एक दिव्य शिवलिंग पर पड़ी। उस दर्शन मात्र से ही उनके हृदय में शिवभक्ति का भाव उमड़ पड़ा। उन्होंने तुरंत मंदिर की सफाई की और शिवलिंग की पूजा करने का संकल्प लिया। किन्तु उन्हें पूजा की विधि का कोई ज्ञान नहीं था। उन्होंने सोचा, “महादेव को अगर कुछ खाने और पीने को अर्पित कर दूं, तो शायद यही उनकी सेवा होगी।” यह विचार आते ही वे जंगल लौटे। वहाँ उन्होंने एक जंगली शूकर का शिकार किया और उसका मांस एक पत्तल में रख लिया। साथ ही, मधुमक्खियों के छत्ते से थोड़ा मधु इकट्ठा किया। जल का कोई साधन न दिखने पर उन्होंने अपने मुँह में ही जल भर लिया।
जब वे दोबारा मंदिर लौटे, तो देखा कि शिवलिंग पर कुछ सूखे पत्ते गिरे हुए हैं। उन्होंने अपने पैर से वे पत्ते हटाए, फिर मुँह में रखे जल से शिवलिंग का अभिषेक किया। इसके बाद उन्होंने महादेव को भोग स्वरूप मांस और शहद अर्पित किया। हालाँकि यह पूजा शास्त्रों के विरुद्ध थी और अर्पित वस्तुएं भी निषिद्ध थीं, लेकिन कन्नप्पा का भाव शुद्ध था। उसने जो कुछ भी किया, वह पूरी श्रद्धा और प्रेम से किया। और महादेव को अपने भक्त के इसी भाव की ही तो तलाश रहती है — विधि नहीं, भावना। महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने उस भोग को स्वीकार कर लिया। अब यह कन्नप्पा की नित्य क्रिया बन गई। वह प्रतिदिन शिवलिंग पर आए पत्तों को अपने पैरों से हटाता, मुँह के जल से अभिषेक करता और मांस-शहद अर्पित करता।
इसी जंगल के एकांत में स्थित उस मंदिर में एक पारंपरिक ब्राह्मण पुजारी भी पूजा करने आते थे। वे शिव के गहरे उपासक थे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि मंदिर में मांस के टुकड़े बिखरे पड़े हैं, तो बहुत दुखी हुए। उन्होंने तुरंत मंदिर को शुद्ध जल से धोया, विधिपूर्वक पूजा की और पुष्प अर्पित किए। किन्तु यह दृश्य अब रोज़ का हो गया। प्रतिदिन मंदिर में मांस दिखाई देने लगा। हैरान होकर पुजारी ने निश्चय किया कि वे इस रहस्य का पता लगाकर ही रहेंगे। उन्होंने निश्चय किया कि वे रात को मंदिर में छिपकर देखेंगे कि कौन इसे अपवित्र कर रहा है।
प्रतिदिन की तरह उस दिन भी कन्नप्पा मंदिर पहुँचे। उन्होंने पहले अपने पैर से शिवलिंग पर चढ़े हुए पुष्प हटाए, जो पुजारी द्वारा अर्पित किए गए थे। फिर अपने मुख के जल से अभिषेक किया और भोग स्वरूप मांस व मधु अर्पित किया। मंदिर के एक कोने में छिपकर पुजारी यह सब देख रहे थे। कन्नप्पा की यह भक्ति-प्रवृत्ति देखकर उनके भीतर क्रोध उमड़ पड़ा। यद्यपि उन्हें यह स्पष्ट था कि कन्नप्पा यह सब श्रद्धा से कर रहे हैं, जानबूझकर अपवित्रता फैलाने के लिए नहीं, फिर भी उन्हें उसका तरीका अशुद्ध और अनुचित लगा। पुजारी के मन में एक द्वंद्व पैदा हो गया—”मैं वर्षों से शास्त्रानुसार पवित्र वस्तुओं से महादेव की सेवा कर रहा हूँ, फिर भी मुझे अब तक उनके दर्शन नहीं हुए। ऐसे में यह कैसे संभव है कि एक मांस अर्पित करने वाला व्यक्ति महादेव का प्रिय हो जाए?” उनका मन क्षुब्ध हो उठा। यही वह क्षण था जब महादेव ने अपने एक अन्य भक्त—पुजारी—के अहंकार को तोड़ने के लिए एक दिव्य लीला रची।
अचानक शिवलिंग की एक आंख से रक्त बहने लगा। यह दृश्य देखकर कन्नप्पा व्याकुल हो उठा। वह अपने आराध्य की पीड़ा सह नहीं सका। उसने शीघ्रता से कुछ औषधीय जड़ी-बूटियां लाकर उस नेत्र पर रखीं, किंतु रक्त बहना बंद नहीं हुआ। वह असमंजस में पड़ गया कि अब क्या करे। वहीं छिपकर देख रहे पुजारी भी विचलित हो उठे—उन्हें भ्रम हुआ कि शायद महादेव कन्नप्पा की पूजा से रुष्ट हो गए हैं। उधर कन्नप्पा का हृदय अत्यंत पीड़ा से भर गया। उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। तभी उसके मन में एक विचार कौंधा—“यदि मैं अपनी एक आंख शिवलिंग को अर्पित कर दूं, तो शायद उनका कष्ट दूर हो जाए।” निःसंकोच उसने अपने बाण से अपनी एक आंख निकाल ली और शिवलिंग की रक्त बहती आंख पर रख दी। विलक्षण रूप से रक्त बहना रुक गया।
कन्नप्पा हर्ष से भर गया, लेकिन तभी शिवलिंग की दूसरी आंख से भी रक्त बहने लगा। अब वह उपाय उसे ज्ञात था। उसने बिना विलंब किए अपनी दूसरी आंख भी अर्पित करने का निश्चय कर लिया। उसकी भक्ति अब अपने चरम पर थी—जहाँ ना शरीर की पीड़ा mattered करती थी, ना स्वयं का अस्तित्व—बस महादेव के प्रति समर्पण ही शेष था। तभी कन्नप्पा के मन में एक विचार आया—”जब मैं अपना दूसरा नेत्र अर्पित कर दूँगा, तो अंधा हो जाऊँगा। तब मैं यह कैसे जान पाऊँगा कि नेत्र को ठीक उसी स्थान पर रख रहा हूँ?” यह सोचकर उसने अपने पैर का अंगूठा उस नेत्र स्थान पर रख दिया, ताकि अंधत्व की अवस्था में भी वह सही दिशा का अनुमान रख सके। फिर जैसे ही वह अपने बाण से दूसरा नेत्र निकालने ही वाला था, उसी क्षण स्वयं महादेव प्रकट हो गए और प्रेमपूर्वक उसका हाथ पकड़ लिया।
अपने आराध्य को साक्षात सामने देखकर कन्नप्पा भावविभोर हो गया। वह तुरंत उनके चरणों में गिर पड़ा। महादेव ने उसके दोनों नेत्र पुनः ठीक कर दिए। उस दृश्य को मंदिर के बाहर से देख रहे पुजारी भी भीतर आ गए और वे भी महादेव के चरणों में लोट गए। पुजारी ने दीन भाव से कहा, “हे देवाधिदेव! मुझे अहंकार हो गया था कि मैं आपका सबसे बड़ा भक्त हूँ। लेकिन आज कन्नप्पा ने मेरे इस अभिमान को चूर कर दिया। उसी की भक्ति के कारण मुझे भी आपके साक्षात दर्शन प्राप्त हुए। अब मुझे यह भलीभांति समझ आ गया है कि आपको किसी विधि-विधान से नहीं, केवल सच्चे भाव से ही पाया जा सकता है।” महादेव मुस्कुराए और दोनों भक्तों को आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गए।
आज भी उस पावन कथा की स्मृति में, आंध्रप्रदेश के तिरुपति जिले में स्थित श्रीकालहस्ती नामक स्थान पर वही शिवलिंग श्रीकालहस्ती महादेव के रूप में प्रतिष्ठित है। यही वह स्थान है जहाँ भक्ति के प्रतीक कन्नप्पा ने अपने नेत्र महादेव को अर्पित किए थे, और जहां सच्चे प्रेम और समर्पण की यह दिव्य कथा आज भी भक्तों को भाव-विभोर करती है।