सूत जी बोले… लेकिन सूत जी कौन थे? | उनकी सम्पूर्ण कथा जानिए !

 “सूत जी की कथा | कौन थे ये महान ऋषि और उनका योगदान क्या था?”

यदि आपने हिन्दू धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ या व्रत कथाओं का अध्ययन किया है, तो आपने पौराणिक “सूत जी” का नाम अवश्य सुना होगा। इसका कारण यह है कि सूत जी को हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्ध वक्ताओं में से एक माना जाता है। उन्होंने जिस स्तर पर पुराणों की कथाओं का प्रचार और प्रसार किया, वैसा कार्य शायद ही किसी और ने किया हो। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह “सूत जी” वास्तव में कौन हैं?

सूत जी का वास्तविक नाम “रोमहर्षण” था, जिन्हें “लोमहर्षण” भी कहा जाता है। यह नाम उन्हें इसलिए मिला क्योंकि उनकी कथा-वाचन शैली इतनी प्रभावशाली थी कि श्रोता उनकी वाणी सुनकर रोमांचित हो उठते थे—उनका रोम-रोम हर्ष से भर जाता था। उन्हें “सूत जी” इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे सूत समुदाय से संबंधित थे। उनके पिता क्षत्रिय और माता ब्राह्मणी थीं, इस कारण वे सामाजिक रूप से सूत वर्ग में आए।

हालांकि एक अन्य पौराणिक कथा उनके जन्म को यज्ञ से जोड़ती है। कथा के अनुसार, एक बार सम्राट पृथु ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें अंत में सभी देवताओं को हविष्य अर्पित किया जा रहा था। उस समय ब्राह्मणों से एक भूल हो गई—देवराज इंद्र को अर्पित किए जाने वाले सोमरस में देवगुरु बृहस्पति के हविष्य का अंश भी मिश्रित हो गया। जब वह हविष्य अग्नि में डाला गया, तो उसी अग्नि से रोमहर्षण का जन्म हुआ। चूंकि उनका जन्म इंद्र (क्षत्रिय गुण) और बृहस्पति (ब्राह्मण गुण) के संयोग से हुआ था, इसलिए उन्हें “सूत” कहा गया।

जब महर्षि वेदव्यास ने महापुराणों की रचना पूर्ण की, तो उनके मन में यह चिंता उत्पन्न हुई कि इस गूढ़ ज्ञान को किस प्रकार संरक्षित और प्रसारित किया जाए। यद्यपि उनके अनेक शिष्य थे, लेकिन कोई भी शिष्य समस्त १८ पुराणों को पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं कर सका। इसी समय, जब सूत जी किशोरावस्था में थे, तो एक योग्य गुरु की खोज करते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। आज यह धारणा प्रचलित है कि सूत कुल के व्यक्ति को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था, जबकि यह पूरी तरह गलत है, क्योंकि स्वयं महर्षि वेदव्यास ने रोमहर्षण को अपना शिष्य बनाकर इस भ्रांति को खंडित कर दिया।

व्यास आश्रम में सूत जी की विशेष मित्रता महर्षि व्यास के एक अन्य शिष्य शौनक ऋषि से हो गई। दोनों ही महर्षि व्यास के श्रेष्ठतम शिष्यों में गिने जाने लगे। रोमहर्षण ने अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति और समर्पण से व्यास रचित समस्त १८ महापुराणों को कंठस्थ कर लिया। यह देखकर महर्षि वेदव्यास अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने रोमहर्षण को आदेश दिया कि वह इस अमूल्य ज्ञान का व्यापक प्रचार करें।

इसके पश्चात रोमहर्षण ने अपने गुरु महर्षि वेदव्यास से निवेदन किया कि वे उनके पुत्र उग्रश्रवा को भी अपना शिष्य स्वीकार करें। उग्रश्रवा अपने पिता की ही भांति तेजस्वी और प्रतिभाशाली थे, जिसे देखकर महर्षि व्यास ने उन्हें भी सहर्ष शिष्य बना लिया। रोमहर्षण स्वयं वेदों और पुराणों का गहन अध्ययन कर चुके थे, लेकिन वे इससे भी उच्च ज्ञान की प्राप्ति के लिए परमपिता ब्रह्मा की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें दिव्य और अलौकिक ज्ञान प्रदान किया।

तब रोमहर्षण ने ब्रह्मदेव से प्रश्न किया, “मुझे अपने गुरु से समस्त पुराणों का ज्ञान प्राप्त हो चुका है और आपने भी मुझे दिव्य ज्ञान प्रदान किया है। अब मैं इस ज्ञान का प्रसार किस प्रकार करूं?” इस पर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक दिव्य चक्र प्रदान किया और कहा, “इस चक्र को चलाओ, और जहाँ यह चक्र थमे, वहीं अपना आश्रम स्थापित कर इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार करो।”

ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर रोमहर्षण ने उस दिव्य चक्र को घुमाया, जो जाकर नैमिषारण्य नामक पवित्र स्थान पर रुक गया। यह वही तीर्थ था, जहाँ 88,000 तपस्वी ऋषि निवास करते थे। मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने एक निमिष (आंख झपकने जितने समय) में सहस्रों दानवों का संहार किया था। इसी कारण इस भूमि को नैमिषारण्य कहा जाने लगा। यहीं पर रोमहर्षण ने अपना आश्रम स्थापित किया और प्रतिदिन सत्संग व ज्ञान की कथा का आयोजन करने लगे।

कहा जाता है कि उनकी कथा-वाचन शैली इतनी आकर्षक और प्रभावशाली थी कि केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी उनके सत्संग को सुनने के लिए वहां आ जाते थे। यहीं से वे सूत जी के नाम से विख्यात हुए। उधर उनके पुत्र उग्रश्रवा ने भी महर्षि वेदव्यास से शिक्षा प्राप्त की और अल्प समय में ही सभी पुराणों का गहन अध्ययन कर लिया। वे भी अपने पिता की तरह उस दिव्य ज्ञान के प्रचार में जुट गए।

एक बार नैमिषारण्य में निवास कर रहे सभी 88,000 ऋषियों ने महर्षि वेदव्यास से निवेदन किया कि वे उन्हें समस्त महापुराणों की कथा सुनाएं। इस पर महर्षि व्यास मुस्कराए और बोले, “इसके लिए मेरी आवश्यकता नहीं है। मेरे योग्य शिष्य रोमहर्षण नैमिषारण्य में ही हैं, जो इस समस्त ज्ञान से आपको परिचित करा सकते हैं। आप उन्हें व्यास पद पर आसीन करें और उनसे पुराणों का श्रवण करें।”

ऋषियों ने संशयवश पूछा, “क्या एक सूत को व्यास पद पर आसीन किया जा सकता है?” तब महर्षि व्यास ने उन्हें तत्वज्ञान देते हुए कहा, “योग्यता जन्म से नहीं, कर्म से निर्धारित होती है। ज्ञान, श्रद्धा और साधना ही सच्चे मापदंड हैं।”

यह सुनकर सभी ऋषियों का भ्रम दूर हुआ और वे नैमिषारण्य लौटकर सूत जी को व्यास गद्दी पर आसीन कर पुराणों की कथा सुनने लगे। सूत जी ने एक भव्य 12 वर्षों का यज्ञ सत्र आरंभ किया। इस आयोजन में उनके बाल सखा शौनक ऋषि भी पधारे और यजमान के रूप में प्रतिष्ठित हुए। सभी ऋषिगण शौनक जी के नेतृत्व में प्रश्न करते, और सूत जी उत्तर देकर पुराणों का ज्ञान प्रदान करते। इस प्रकार वर्षों बीत गए—सूत जी ने दस पुराणों की कथा पूर्ण की और ग्यारहवें पुराण का आरंभ किया।

उधर जब भगवान बलराम को महाभारत युद्ध का समाचार मिला, तो वे संसारिक कलह से विरक्त होकर तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। भ्रमण करते हुए वे नैमिषारण्य पहुंचे, जहाँ उस समय सूत जी का भव्य यज्ञ सत्र चल रहा था। जैसे ही ऋषियों ने बलराम जी के आगमन का समाचार सुना, वे तुरंत अपने स्थान से उठकर आदरपूर्वक उनका स्वागत करने लगे और उन्हें सम्मानपूर्वक आसन प्रदान किया। परंतु सूत जी, जो व्यास गद्दी पर आसीन थे, शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार उस आसन से केवल ईश्वर के लिए ही उठ सकते थे। इसलिए उन्होंने बलराम जी के सम्मान में खड़े होने के बजाय कुछ समय के लिए कथा को विराम दे दिया।

जब बलराम जी ने यह देखा, तो उन्हें भारी रोष आया। उन्होंने सोचा कि जहाँ सारे महर्षि मेरे स्वागत में खड़े हुए, वहीं एक सूत कुल में जन्मा व्यक्ति मेरे आगमन पर बैठा रहा—यह मेरा अपमान है। इसी भावावेश में उन्होंने वहीं बैठे-बैठे एक कुश घास को मंत्रसिद्ध कर सूत जी पर चला दिया, जिससे उनका मस्तक उनके धड़ से अलग हो गया। यह दृश्य देखकर सम्पूर्ण सभा में हाहाकार मच गया और सभी ऋषि भयाक्रांत होकर त्राहि-त्राहि करने लगे।

इसके बाद सभी ऋषिगण शौनक ऋषि के नेतृत्व में बलराम जी के पास पहुंचे और अत्यंत पीड़ा से बोले, “भगवन, आपने यह क्या कर डाला? महर्षि वेदव्यास के आदेश से हमने सूत जी को व्यास पद प्रदान किया था, और आपने बिना तथ्य जाने उनका वध कर दिया। यह न केवल ब्रह्महत्या का पाप है, बल्कि इससे हमारी भी बड़ी हानि हो गई है। सूत जी ने अभी तक सभी पुराणों की कथा पूर्ण नहीं की थी—अब यह दिव्य ज्ञान अधूरा रह जाएगा और सदा के लिए लुप्त हो जाएगा।”

जब बलराम जी को सच्चाई का बोध हुआ, तो वे अत्यंत व्यथित हो गए। उन्होंने शोकाकुल होकर शौनक ऋषि के चरण पकड़ लिए और बोले, “मुझसे अनजाने में अत्यंत बड़ा अपराध हो गया है। कृपया मुझे बताइए, मैं इस पाप का प्रायश्चित कैसे करूं? और किस प्रकार सूत जी द्वारा दिया गया यह अधूरा ज्ञान पुनः पूर्ण हो सके?”

इस पर शौनक ऋषि ने भगवान बलराम से कहा, “आप सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा को यहाँ आमंत्रित कीजिए, क्योंकि अब वे ही हैं—व्यास जी के अतिरिक्त—जिन्हें समस्त पुराणों का गहन ज्ञान प्राप्त है।” यह सुनकर बलराम जी तत्काल शौनक जी के साथ उग्रश्रवा ऋषि के पास पहुँचे और उनसे क्षमा याचना की। उन्होंने उन्हें मनाकर नैमिषारण्य ले आए, जहाँ उग्रश्रवा जी ने शेष आठ पुराणों की कथा सुनाने का वचन दिया। इससे बलराम जी को कुछ संतोष हुआ।

प्रायश्चित यात्रा पर निकलने से पूर्व बलराम जी ने सभी ऋषियों से पूछा, “बताइए, मैं आपके लिए और क्या सेवा कर सकता हूँ?” तब सभी ऋषियों ने निवेदन किया, “हे प्रभु, इस वन में बल्वल नामक एक असुर निवास करता है, जो इल्वल का पुत्र है। वह बार-बार हमारे यज्ञों में विघ्न डालता है और यज्ञ कुंड में अपवित्र वस्तुएँ फेंकता है। कृपया हमें इस संकट से मुक्ति दिलाइए।”

ऋषियों की यह प्रार्थना सुनकर बलराम जी ने बल्वल से युद्ध किया और सहज ही उसका संहार कर दिया। इस प्रकार नैमिषारण्य को उन्होंने राक्षसों के आतंक से मुक्त किया। इसके बाद वे प्रायश्चित हेतु पुनः तीर्थ यात्रा पर निकल गए। वहीं, सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा ने अपने पिता का सत्संग कार्य आगे बढ़ाया और शेष आठ महापुराणों की ज्ञानगंगा सभी ऋषियों को प्रदान की।

आज जो महाभारत की कथा हम पढ़ते हैं, वह भी सूत जी के पुत्र उग्रश्रवा सौति द्वारा ही कही गई है। जब महर्षि वैशम्पायन ने महाभारत की मूल कथा—जिसे जय कहा जाता है—राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को सुनाई थी, उस समय उग्रश्रवा सौति भी वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने यह कथा पूरी एकाग्रता से सुनी। बाद में उन्होंने नैमिषारण्य में, महर्षि शौनक की उपस्थिति में, वही कथा विस्तारपूर्वक 88,000 ऋषियों को सुनाई। अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भी वही पद प्राप्त किया, इसलिए उन्हें भी “सूत जी” कहा जाने लगा।

कुछ लोगों का मानना है कि लोमहर्षण या उग्रश्रवा सौति ब्राह्मण थे, न कि सूत—पर यह धारणा भी भ्रमजनक है। यद्यपि कुछ पुराणों में रोमहर्षण को यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न बताया गया है, लेकिन वह प्रतीकात्मक विवरण है। वास्तव में वे सूत कुल से ही थे। महाभारत में भी अनेक स्थानों पर उग्रश्रवा सौति को “सूत नंदन” (सूत का पुत्र) कहा गया है। वैसे भी “सूत” कोई हीन उपाधि नहीं, बल्कि एक विशिष्ट और सम्माननीय पद था, जिसे नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।

इसी समान पद के कारण कुछ भ्रम उत्पन्न हुआ कि वास्तविक सूत जी कौन हैं—लोमहर्षण या उग्रश्रवा सौति? इसे सरल रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है कि दोनों पिता-पुत्र ही “सूत जी” कहलाते हैं, किंतु पुराणों में अधिकांशतः जिन “सूत जी” का उल्लेख होता है, वे रोमहर्षण (लोमहर्षण) हैं, जबकि महाभारत से संबंधित संदर्भों में जिन “सूत जी” का नाम आता है, वे उग्रश्रवा सौति हैं। इसलिए सामान्यतः जब “सूत जी” की चर्चा होती है, तो उनसे तात्पर्य रोमहर्षण से ही माना जाता है।

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