शारदीय नवरात्रि हिंदू धर्म का एक प्रमुख पर्व है, जिसमें देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की उपासना की जाती है। यह उत्सव आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होकर नवमी तिथि तक नौ दिनों तक चलता है। इस अवधि में श्रद्धालु उपवास रखते हैं और विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं। धार्मिक दृष्टि से यह पर्व देवी शक्ति की आराधना का अवसर प्रदान करता है, वहीं सांस्कृतिक रूप से भी इसका गहरा महत्व है। माना जाता है कि नवरात्रि में मां दुर्गा की साधना से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का संचार होता है। “शारदीय” शब्द उस नवरात्रि को दर्शाता है जो शरद ऋतु के दौरान मनाई जाती है। इसलिए आश्विन मास में आने वाले इस नवरात्रि पर्व को शारदीय नवरात्रि कहा जाता है।
धार्मिक परंपराओं के अनुसार, शारदीय नवरात्रि के समय देवी दुर्गा ने महिषासुर नामक असुर का वध कर धर्म की स्थापना की थी। यही कारण है कि यह पर्व सत्य की असत्य पर और धर्म की अधर्म पर विजय का प्रतीक माना जाता है। नवरात्रि का काल भक्तों के लिए उपासना, आत्मसंयम और साधना का विशेष अवसर प्रदान करता है। नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है, जो शैलपुत्री से लेकर सिद्धिदात्री तक माने जाते हैं। प्रत्येक दिन भक्त देवी के एक विशेष रूप का आवाहन करते हैं और विधिपूर्वक पूजन एवं स्तुति करते हैं। इस अवधि में कलश स्थापना, अखंड दीप प्रज्वलन तथा देवी मंत्रों का जप करना विशेष महत्व रखता है।
नवरात्रि के अवसर पर श्रद्धालु देवी शक्ति के रूप में मां दुर्गा की नौ अवतारों सहित विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं। इस पर्व की शुरुआत घरों में कलश स्थापना और दुर्गा सप्तशती के पाठ से होती है। नवरात्रि के दौरान देशभर के अनेक शक्ति पीठों पर भव्य मेले आयोजित किए जाते हैं। इसके साथ ही मंदिरों में देवी जागरण तथा मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की झांकियां भी सजाई जाती हैं, जिनमें भक्त बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार नवरात्रि काल में भगवान श्रीराम ने मां शक्ति की आराधना कर रावण का वध किया था। इस घटना को अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक माना जाता है।
नवरात्रि का धार्मिक महत्व
नवरात्रि की उत्पत्ति और महत्व से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं।
एक प्रमुख कथा के अनुसार, महिषासुर नामक असुरराज ने देवताओं के साथ युद्ध छेड़ दिया था और स्वर्गलोक पर अधिकार करने लगा। तब त्रिदेव—ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित समस्त देवताओं ने अपनी शक्तियों का संयोग कर मां दुर्गा को प्रकट किया। देवी ने नौ रातों तक महिषासुर से युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध कर धर्म की रक्षा की। इस विजय दिवस को विजयादशमी कहा जाता है, जो अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है।
दूसरी कथा भगवान श्रीराम से जुड़ी है। जब वे सीता जी की मुक्ति के लिए रावण से युद्ध की तैयारी कर रहे थे, तब उन्होंने मां दुर्गा की आराधना की। पूजा के लिए 108 कमल पुष्पों की आवश्यकता थी। एक पुष्प कम पड़ने पर श्रीराम ने अपना नेत्र अर्पित करने का संकल्प किया। उनकी यह भक्ति देखकर देवी दुर्गा प्रसन्न हुईं और उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया। इसके बाद श्रीराम ने रावण का वध कर धर्म की स्थापना की।
एक और मान्यता के अनुसार, राजा दक्ष की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी देवी उमा नवरात्रि के समय अपने मायके—हिमालय लोक—पधारती हैं। यही कारण है कि यह पर्व देवी के घर-आगमन का उत्सव भी माना जाता है।
नवरात्रि के नौ दिन और माँ दुर्गा के स्वरूप
नवरात्रि का उत्सव नौ रातों और दस दिनों तक श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है। प्रत्येक दिन माँ दुर्गा के एक विशेष स्वरूप की पूजा-अर्चना की जाती है। साथ ही भक्त उस दिन से जुड़े विशेष रंग धारण करते हैं और विभिन्न विधियों से देवी की आराधना करते हैं।
पहला दिन – शैलपुत्री (प्रतिपदा) : इस दिन माँ शैलपुत्री की पूजा होती है। “शैल” का अर्थ है पर्वत और “पुत्री” का अर्थ है पुत्री। इसलिए इन्हें पर्वतराज हिमालय की पुत्री माना जाता है। इस दिन भक्त देवी पार्वती के स्वरूप की आराधना करते हैं।
दूसरा दिन – ब्रह्मचारिणी (द्वितीया) : इस दिन देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। यह रूप संयम, तप और क्रोध पर नियंत्रण का प्रतीक माना जाता है।
तीसरा दिन – चंद्रघंटा (तृतीया) : इस दिन देवी चंद्रघंटा की उपासना होती है। माना जाता है कि उनके माथे पर अर्धचंद्र के आकार की घंटी है और वे दुष्ट शक्तियों का नाश करती हैं। इस दिन पूजा में चमेली के फूल अर्पित किए जाते हैं।
चौथा दिन – कूष्मांडा (चतुर्थी) : इस दिन देवी कूष्मांडा की पूजा होती है। उनका नाम “कु” (थोड़ा), “उष्मा” (ऊर्जा) और “अंड” (ब्रह्मांड) से मिलकर बना है। माना जाता है कि उनकी शक्ति से ब्रह्मांड का निर्माण हुआ।
पाँचवाँ दिन – स्कंदमाता (पंचमी) : इस दिन देवी स्कंदमाता की पूजा की जाती है। वे कार्तिकेय (स्कंद) की माता कहलाती हैं और बुध ग्रह पर शासन करती हैं। उनका स्वरूप कोमल और उग्र दोनों ही माना जाता है।
छठा दिन – कात्यायनी (षष्ठी) : इस दिन देवी कात्यायनी की आराधना होती है। मान्यता है कि उन्होंने महिषासुर जैसे दैत्य का वध किया। महिलाएँ विशेष रूप से सुखमय दांपत्य जीवन और परिवार की मंगलकामना हेतु इनकी पूजा करती हैं।
सातवाँ दिन – कालरात्रि (सप्तमी) : सप्तमी को माँ कालरात्रि की उपासना की जाती है। यह देवी का उग्र और भयानक स्वरूप है, जो दुष्ट आत्माओं और राक्षसों का विनाश करती हैं। इन्हें शनि ग्रह की अधिष्ठात्री भी माना जाता है।
आठवाँ दिन – महागौरी (अष्टमी) : इस दिन महागौरी की पूजा की जाती है। वे सफेद वस्त्र धारण किए हुए वृषभ पर सवार रहती हैं। अष्टमी पर कन्या पूजन का विशेष महत्व होता है, जहाँ छोटी बालिकाओं को देवी स्वरूप मानकर पूजित किया जाता है। इसे महाष्टमी या महा दुर्गाष्टमी भी कहा जाता है।
नौवाँ दिन – सिद्धिदात्री (नवमी) : नवमी को देवी सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। इन्हें सिद्धियाँ और वरदान देने वाली देवी माना जाता है। भक्त मानते हैं कि इनकी आराधना से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
दसवाँ दिन – विजयादशमी (दशहरा) : नवरात्रि का समापन दशहरे के दिन होता है। यह दिन अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। इस दिन नए कार्यों की शुरुआत को शुभ माना जाता है। दक्षिण भारत में इसे विद्यारंभम के रूप में मनाया जाता है, जहाँ बच्चों को शिक्षा के प्रथम अक्षर लिखवाए जाते हैं। बंगाल में सिंदूर खेला का विशेष आयोजन होता है।
शारदीय नवरात्रि 2025: घटस्थापना का समय और महत्व
शारदीय नवरात्रि 2025 की शुरुआत 22 सितंबर, सोमवार से हो रही है। इस दिन घटस्थापना की जाती है, जो नवरात्रि के अनुष्ठानों की मुख्य प्रक्रिया मानी जाती है।
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घटस्थापना का प्रातःकालीन मुहूर्त: सुबह 06:09 मिनट से 08:06 मिनट तक रहेगा। इस अवधि में कन्या लग्न होने से यह समय विशेष रूप से शुभ माना गया है।
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अभिजित मुहूर्त: यदि प्रातःकाल में घटस्थापना संभव न हो, तो दिन में 11:49 मिनट से 12:38 मिनट के बीच घटस्थापना की जा सकती है।
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कन्या लग्न का समय: 22 सितंबर को सुबह 06:09 मिनट से प्रारंभ होकर 08:06 मिनट तक रहेगा।
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प्रतिपदा तिथि का समय: प्रतिपदा तिथि 22 सितंबर को रात 01:23 बजे से शुरू होकर 23 सितंबर को रात 02:55 बजे तक रहेगी।
धार्मिक मान्यता है कि घटस्थापना का सबसे श्रेष्ठ समय सुबह का होता है, जब प्रतिपदा प्रबल होती है। यदि किसी कारणवश उस समय घटस्थापना न हो सके, तो अभिजित मुहूर्त में भी यह कार्य किया जा सकता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में घटस्थापना करना अनुशंसित नहीं है, हालांकि इसे पूर्ण रूप से निषिद्ध भी नहीं माना गया है।
शारदीय नवरात्रि पूजा एवं कलश स्थापना विधि
1. स्नान एवं शुद्धिकरण :
- ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पूरे घर की सफाई करने के बाद मुख्य द्वार पर आम्रपत्र (आम के पत्तों) का तोरण लगाएं।
2. पूजा स्थल की तैयारी
- पूजा स्थान को साफ करके गंगाजल से पवित्र करें।
- चौकी पर माता दुर्गा की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें और श्रीगणेश व मां दुर्गा का स्मरण करें।
3. कलश स्थापना
- उत्तर या उत्तर-पूर्व दिशा में कलश स्थापित करें।
- सबसे पहले मिट्टी के पात्र में जौ के बीज बोएं।
- तांबे के कलश में स्वच्छ जल एवं गंगाजल भरें।
- कलश पर कलावा (मौली) बांधकर उसे आम के पत्तों से सजाएं।
- इसमें दूब, अक्षत (चावल) और सुपारी डालें।
- कलश के ऊपर चुनरी और मौली से सजा नारियल स्थापित करें।
4. पूजन प्रक्रिया
- विधिवत सामग्री का प्रयोग करके मां दुर्गा का पूजन करें।
- दुर्गा सप्तशती का पाठ करें।
- अंत में मां दुर्गा की आरती करें और प्रसाद का वितरण करें।
नवरात्रि के दौरान अनुष्ठान
नवरात्रि की नौ रातों में मां दुर्गा की तीन प्रमुख रूपों में पूजा-अर्चना की जाती है।
- प्रथम तीन दिन: देवी की आराधना शक्ति स्वरूपा के रूप में की जाती है, जो सामर्थ्य और बल की प्रतीक हैं।
- अगले तीन दिन: इन्हें लक्ष्मी स्वरूपा माना जाता है और धन-संपत्ति एवं समृद्धि की देवी के रूप में पूजा जाता है।
- अंतिम तीन दिन: मां को सरस्वती के रूप में पूजित किया जाता है, जो ज्ञान और विद्या की अधिष्ठात्री हैं।
नवरात्रि के दौरान भक्त उपवास रखते हैं और अनाज, प्याज, मांसाहार तथा मदिरा का सेवन नहीं करते। उत्तर भारत में उपवास रखने वालों के लिए विशेष व्रत भोजन तैयार किया जाता है।
पूर्वी भारत में नवरात्रि दुर्गा पूजा के रूप में मनाई जाती है, जिसे वर्ष का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। इस अवसर पर भव्य पंडाल सजाए जाते हैं, दीपों और रोशनी से उन्हें अलंकृत किया जाता है तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।
गुजरात और महाराष्ट्र में यह पर्व गरबा और डांडिया नृत्य के रूप में प्रसिद्ध है, जहाँ पारंपरिक परिधान पहनकर लोग डांडिया की छड़ियों के साथ नृत्य करते हैं।
गोवा में नवरात्रि पर विशेष जात्राएँ प्रारंभ होती हैं और सरस्वत ब्राह्मण मंदिरों को विशेष रूप से सजाया जाता है। यहाँ भक्त दश मैत्रिकाओं की पूजा चंदन, कुमकुम, नए वस्त्र और आभूषणों के साथ करते हैं।
केरल में नवमी के दिन आयुध पूजा की परंपरा है, जिसमें घर के सभी औजारों, उपकरणों और साधनों की विशेष पूजा की जाती है ताकि वे शुभ और कल्याणकारी बने रहें।
नवरात्रि में जौ बोने का महत्व और सही विधि
1. धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
- नवरात्रि में जौ बोना देवी दुर्गा को आमंत्रित करने तथा सुख-समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।
- शारदीय नवरात्रि हो या चैत्र नवरात्रि – दोनों अवसरों पर कलश स्थापना और जौ बोने की परंपरा निभाई जाती है।
- पहले दिन पूजा-अर्चना के साथ ही इस परंपरा की शुरुआत होती है।
- मान्यता है कि सृष्टि की पहली फसल जौ थी, इसलिए देवी-देवताओं की पूजा में हवन हेतु जौ का विशेष महत्व है।
2. मिट्टी की तैयारी
- जौ बोने के लिए साफ और बारीक मिट्टी का प्रयोग करें।
- मिट्टी को गेहूं वाली छाननी से छान लें, ताकि कंकड़-पत्थर अलग हो जाएँ और अंकुरण बेहतर हो सके।
- चाहें तो उपले को बारीक करके मिट्टी में मिला सकते हैं, यह प्राकृतिक खाद का काम करेगा।
- यदि चाहें तो मिट्टी की जगह रेत का भी उपयोग किया जा सकता है।
3. बीज की तैयारी
- जौ या गेहूं के बीज उपयोग किए जा सकते हैं, लेकिन बेहतर है कि उच्च गुणवत्ता वाले जौ चुनें।
- बीज में कीड़े, फफूंद या दरार नहीं होनी चाहिए।
- बीज बोने से पहले 3-4 घंटे तक पानी में भिगोकर रखें।
- भिगोते समय ऊपर तैरकर आने वाले खराब या बेकार बीज अलग कर दें।
4. बर्तन का चुनाव
- जौ बोने के लिए मिट्टी का बर्तन (गमला/पात्र) सबसे उपयुक्त है।
- मिट्टी के बर्तन में हवा और नमी का संतुलन बना रहता है, जिससे जड़ों को ऑक्सीजन मिलती है।
- प्लास्टिक या बिना छेद वाले बर्तन में पानी का जमाव हो सकता है, जिससे जौ गल सकते हैं।
- मिट्टी का पात्र अतिरिक्त पानी को सोख लेता है, इसलिए ओवर वॉटरिंग की समस्या नहीं होती।
5. बोने की प्रक्रिया
- चुने गए बर्तन को अपनी पसंद के अनुसार सजा सकते हैं।
- सबसे पहले बर्तन में एक परत मिट्टी डालें।
- अब जौ के बीज समान रूप से बिखेर दें और पतली मिट्टी की दूसरी परत से ढक दें।
- ध्यान रखें, मिट्टी की परत बहुत मोटी न हो ताकि अंकुरण में समय न लगे।
6. देखभाल और सावधानियाँ
- बर्तन में मिट्टी अधिक मात्रा में न भरें, ताकि पानी डालने की पर्याप्त जगह बनी रहे।
- जरूरत के हिसाब से ही पानी दें।
- अधिक पानी डालने पर जौ गल सकते हैं और अंकुरण रुक सकता है।
- नियमित देखभाल के साथ आस्था और विश्वास बनाए रखें, इससे जौ हरे-भरे और घने उगते हैं।
इस प्रकार विधि-विधान और सावधानियों का पालन कर नवरात्रि में बोए गए जौ समृद्धि, खुशहाली और शुभ फल प्रदान करते हैं।
नौ दिनों के रंग और उनका महत्व : Navratri Colors 2025
नवरात्रि में नौ रंगों का महत्व धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत खास माना गया है। हर दिन मां दुर्गा के एक स्वरूप की पूजा होती है और उससे जुड़ा हुआ एक विशेष रंग निर्धारित होता है। मान्यता है कि इन रंगों का पालन करने से भक्त को सौभाग्य, समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। भक्तजन उस दिन उसी रंग के वस्त्र धारण करके देवी माँ को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। इन नौ रंगों की परंपरा माँ शक्ति के नौ रूपों की आराधना और उत्सव का प्रतीक है।
नवरात्रि केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि नकारात्मकता पर विजय और सकारात्मक ऊर्जा के जागरण का पर्व है। इन नौ दिनों में क्रमशः माँ दुर्गा, माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती की पूजा होती है। पहले तीन दिन माँ दुर्गा की, अगले तीन माँ लक्ष्मी की और अंतिम तीन दिन माँ सरस्वती की उपासना के लिए समर्पित होते हैं। दसवें दिन विजयादशमी (दशहरा) बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है।
आइए जानते हैं नौ देवी स्वरूप और उनके लिए निर्धारित रंगों का महत्व:
1. पहला दिन – माँ शैलपुत्री (सफेद रंग) : माँ शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री और माँ पार्वती का स्वरूप हैं। उन्हें बैल पर सवार और हाथ में त्रिशूल लिए हुए दर्शाया जाता है। सफेद रंग शांति और निर्मलता का प्रतीक है। इस दिन सफेद वस्त्र धारण कर पूजा करना शुभ माना जाता है।
2. दूसरा दिन – माँ ब्रह्मचारिणी (लाल रंग) : यह स्वरूप तपस्या, भक्ति और ज्ञान का प्रतीक है। माँ ब्रह्मचारिणी रुद्राक्ष धारण करती हैं और प्रेम व साहस का संदेश देती हैं। लाल रंग असीम साहस, प्रेम और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है।
3. तीसरा दिन – माँ चंद्रघंटा (रॉयल ब्लू रंग) : माँ चंद्रघंटा के मस्तक पर अर्धचंद्र शोभित होता है। वे वीरता, शौर्य और गरिमा की प्रतीक हैं। रॉयल ब्लू रंग इस दिन की विशेषता है, जो शक्ति और दृढ़ता को दर्शाता है।
4. चौथा दिन – माँ कूष्मांडा (पीला रंग) : माँ कूष्मांडा को अष्टभुजा देवी भी कहा जाता है। माना जाता है कि उन्होंने ब्रह्मांड की रचना दिव्य अंडे से की थी। पीला रंग आनंद, ऊर्जा और उजाले का प्रतीक है।
5. पाँचवाँ दिन – माँ स्कंदमाता (हरा रंग) : माँ स्कंदमाता भगवान कार्तिकेय (स्कंद) की माता हैं। वे भक्तों को धर्म और समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं। हरा रंग जीवन, शांति और मातृत्व का प्रतीक है।
6. छठा दिन – माँ कात्यायनी (धूसर/ग्रे रंग) : माँ कात्यायनी को अत्यंत पराक्रमी माना जाता है। ग्रे रंग इस दिन संतुलन, स्थिरता और धरातल से जुड़े रहने का संदेश देता है।
7. सातवाँ दिन – माँ कालरात्रि (नारंगी रंग) : माँ कालरात्रि को दुर्गा का उग्रतम रूप माना जाता है। वे भय को दूर करने वाली और साहस प्रदान करने वाली देवी हैं। नारंगी रंग उत्साह, ऊर्जा और निर्भीकता का प्रतीक है।
8. आठवाँ दिन – माँ महागौरी (मयूर हरा रंग) : अष्टमी के दिन माँ महागौरी की पूजा होती है। इस दिन कन्या पूजन भी किया जाता है क्योंकि बालिकाओं में देवी का स्वरूप देखा जाता है। मयूर हरा रंग विशिष्टता और नए आरंभ का प्रतीक है।
9. नौवाँ दिन – माँ सिद्धिदात्री (गुलाबी रंग) : नवमी को माँ सिद्धिदात्री की पूजा होती है। वे भक्तों को सिद्धियाँ और वरदान प्रदान करती हैं। गुलाबी रंग प्रेम, करुणा और स्त्रैण सौंदर्य का प्रतीक है।
निष्कर्ष : नवरात्रि का यह पर्व न केवल भक्ति और श्रद्धा का समय है, बल्कि जीवन में सकारात्मकता, संतुलन और शक्ति को जागृत करने का अवसर भी है। नौ दिनों के ये नौ रंग न केवल देवी माँ के स्वरूपों को दर्शाते हैं, बल्कि हमें जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं।
शारदीय नवरात्रि का महत्व
शारदीय नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा की विधिवत पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। धार्मिक मान्यता है कि श्रद्धा और नियमपूर्वक किए गए पूजन से देवी मां का आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होता है। इन दिनों देवी दुर्गा भक्तों की प्रार्थनाएँ सुनती हैं और उनके जीवन से कष्टों को दूर करती हैं।
इस पावन अवसर पर परिवार सहित उत्सव मनाना न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आपसी एकता और सकारात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है। नवरात्रि का पर्व हमें यह अवसर देता है कि हम देवी शक्ति से सुख, समृद्धि और मंगलमय जीवन की प्रार्थना करें।