द्वारका धाम – Dwarka Dham

द्वारका धाम – भगवान श्रीकृष्ण की पवित्र नगरी और मोक्ष का द्वार

द्वारका धाम भारत के चार पवित्र धामों में से एक है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण “द्वारकाधीश” के रूप में विराजमान हैं। इसे जगत मंदिर भी कहा जाता है। द्वारका भारत के सबसे प्राचीन, पवित्र और पूजनीय नगरों में से एक है, जिसका उल्लेख हिंदू पौराणिक कथाओं में अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है। गुजरात राज्य के पश्चिमी छोर पर समुद्र तट पर स्थित यह नगर चार धामों में से एक और सात पवित्र पुरियों में से एक है। मान्यता है कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका की स्थापना की थी। उन्होंने मथुरा से यदुवंशियों को लाकर इस दिव्य नगरी को अपनी राजधानी बनाया और इसे एक समृद्ध, सुंदर तथा आध्यात्मिक नगर के रूप में बसाया। “द्वारका” शब्द “द्वार” से बना है, जिसका अर्थ है मोक्ष का प्रवेश द्वार। इसलिए द्वारका को मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग माना गया है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा परिभाषित चार प्रमुख वैष्णव तीर्थों में से एक यही श्री द्वारकाधीश मंदिर है, जो भारत की पश्चिम दिशा में स्थित है। “द्वारकाधीश” नाम का अर्थ है , द्वारका के राजा, अर्थात स्वयं भगवान श्रीकृष्ण।

यह भव्य मंदिर पाँच मंजिला संरचना वाला है, जो 72 विशाल पत्थर के स्तंभों पर टिका हुआ है। इसे जगत मंदिर और निज मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन परंपरा के अनुसार, इसका मूल निर्माण भगवान कृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने किया था। उन्होंने इसे गोमती नदी के किनारे उस पवित्र स्थान पर बनवाया, जहाँ श्रीकृष्ण का निवास माना जाता है। ध्यान देने योग्य है कि यह गोमती नदी, उत्तर भारत की गंगा में मिलने वाली गोमती नहीं, बल्कि द्वारका की स्थानीय पवित्र नदी है। मंदिर के शिखर पर 52 गज लंबा पवित्र ध्वज लहराता है, जिसे दिन में पाँच बार उतारकर पुनः चढ़ाया जाता है। इस ध्वज पर बने सूर्य और चंद्रमा के चिन्ह यह दर्शाते हैं कि जब तक सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी पर रहेंगे, तब तक श्रीकृष्ण का राज्य अमर रहेगा। वर्तमान मंदिर चालुक्य स्थापत्य शैली में निर्मित है और इसका सर्वोच्च शिखर लगभग 51.8 मीटर ऊँचा है, जो समुद्र तट से दूर तक दिखाई देता है। मंदिर में दो प्रमुख प्रवेश द्वार हैं , उत्तर दिशा का मोक्षद्वार, जो मुक्ति का प्रतीक है, और दक्षिण दिशा का स्वर्गद्वार, जो मुख्य बाजार से होते हुए पवित्र गोमती नदी की ओर जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम कहा गया है। उनका जन्म मथुरा में हुआ, पालन-पोषण गोकुल में, और बाल-लीलाएँ वृंदावन में हुईं। बाद में मथुरा गमन और द्वारका की स्थापना कर वे द्वारकाधीश बने। उनका पूरा जीवन धर्म, प्रेम और नीति का आदर्श उदाहरण है।

चार धामबद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और रामेश्वरम् , आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा निर्धारित चार प्रमुख वैष्णव तीर्थ हैं। मान्यता है कि जो भक्त अपने जीवनकाल में इन चारों धामों की यात्रा करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और उसका जीवन सफल हो जाता है।

द्वारकाधीश मंदिर का संक्षिप्त इतिहास ( Little History of Dwarkadhish Mandir)

द्वारका धाम, भगवान श्रीकृष्ण की कर्मभूमि और मोक्षभूमि मानी जाती है। यहाँ स्थित द्वारकाधीश मंदिर का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है और अनेक उतार-चढ़ावों का साक्षी रहा है। समय के साथ इस दिव्य मंदिर का कई बार निर्माण, पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार हुआ। हिंदू परंपरा के अनुसार, ओखामंडल के सबसे पहले विजेता स्वयं भगवान श्रीकृष्ण माने जाते हैं, जिन्हें रंचोड़जी और भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में भी जाना जाता है। कथा के अनुसार, जब श्रीकृष्ण ने मगध देश के राजा जरासंध के साथ सत्रहवाँ युद्ध लड़ा, तो वे मथुरा छोड़कर पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान किए। अपनी सेना सहित वे समुद्र तट पर स्थित ओखामंडल पहुँचे और वहाँ कालस नामक जाति के साथ संघर्ष के बाद इस क्षेत्र पर अधिकार स्थापित किया। यहीं पर उन्होंने गोमती नदी के तट पर द्वारका नगरी बसाई, जो आगे चलकर उनकी राजधानी बनी।

भगवान श्रीकृष्ण के पश्चात उनके परपोते वज्रनाभ ने द्वारका की राजगद्दी संभाली। धार्मिक मान्यता के अनुसार, उन्होंने ही वर्तमान श्री द्वारकानाथ मंदिर (जिसे त्रिलोकसुंदर भी कहा जाता है) का निर्माण कराया, जिसका अर्थ है , तीनों लोकों में सबसे सुंदर मंदिर। अनेक भक्तों का विश्वास है कि यह मंदिर वज्रनाभ जी के निर्देशन में एक ही रात में दिव्य शक्तियों की सहायता से निर्मित हुआ था। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम सौराष्ट्र क्षेत्र (जो आज के जामनगर और जुनागढ़ जिलों में आता है) को यादव वंश ने बसाया था, जिनके प्रमुख नेता स्वयं श्रीकृष्ण थे। बाद में यादवों के बीच आपसी मतभेद और मद्यपान के कारण हुए संघर्ष में पूरा वंश नष्ट हो गया। श्रीकृष्ण के देहावसान के बाद द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो गई। उस समय इस क्षेत्र में काबा, मोडा और कालस नामक जनजातियाँ निवास करती थीं। माना जाता है कि वर्तमान वाघेर समुदाय इन्हीं काबाओं के वंशज हैं।

ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी में कालस जाति ने पुनः ओखामंडल पर अधिकार कर लिया। इसके बाद सीरियाई शासक सुक्कुर बेलियम ने इस क्षेत्र को जीता, लेकिन उसके शासनकाल में द्वारका फिर एक बार समुद्र में डूब गई। बाद में एक अन्य सीरियाई शासक मेहम गुदुका ने उसे पराजित किया, और कालस (वर्तमान वाघेर) ने पुनः शासन संभाला। तेरहवीं शताब्दी में राठौड़ वंश ने ओखामंडल में प्रवेश किया और हेरूले-चावड़ा संघर्ष का लाभ उठाकर सत्ता प्राप्त की। बचे हुए चावड़ा और हेरूले वाघेरों में मिल गए। इसके बाद राठौड़ वंश के वीरवरावलजी ओखामंडल के एकमात्र शासक बने। उनके शासनकाल में गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने ओखामंडल पर आक्रमण कर द्वारका मंदिर को नष्ट कर दिया। हालांकि कुछ समय बाद वाघेरों ने पुनः मुस्लिम शासन को यहाँ से खदेड़ दिया।

ईस्वी 1800 तक ओखामंडल का इतिहास अपेक्षाकृत शांत रहा, लेकिन इसके बाद वधेला और वाघेर समुदायों ने बार-बार ब्रिटिश शासन और गायकवाड़ राजवंश के विरुद्ध विद्रोह किया। अंततः उन्हें या तो आत्मसमर्पण करना पड़ा या पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।

प्राचीन काल

400 ईसा पूर्व में वज्रनाभ ने अपने पूर्वज भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति में हरिमंदिर के पूर्व दिशा में एक छत्राकार स्मारक (umbrella-shaped monument) का निर्माण कराया था। यह निर्माण आज भी समुद्र में विलीन हुए बिना खड़ा है।

शताब्दियों के दौरान पुनर्निर्माण

100 ईसा पूर्व में, हरिमंदिर की पहली मंज़िल पर ब्राह्मी लिपि के अनुसार उस समय मंदिर का कुछ भाग (जो आज के लाडवा मंदिर के एक-तिहाई से भी कम था) का पुनर्निर्माण किया गया।

ईसा सन् 200 में परिवर्तन का दौर

इस काल में महाक्षत्रप रुद्रदामा ने द्वारका के राजा वासुदेव द्वितीय को पराजित किया। वासुदेव की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी धीरादेवी ने अपने धार्मिक भाई पुलोमावी से सहायता मांगी। रुद्रदामा ने सुलह करते हुए अपनी पुत्री का विवाह पुलोमावी से किया और वैष्णव धर्म को स्वीकार किया। इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि उस समय द्वारका में श्रीकृष्ण की पूजा प्रचलित थी। उसी काल में वज्रनाभ ने श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित कर छत्री मंदिर का निर्माण करवाया।

आदि शंकराचार्य और अन्य संतों का योगदान

  • 800 ईस्वी में आदि गुरु शंकराचार्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और चौथी मंज़िल पर आद्याशक्ति की मूर्ति स्थापित की।
  • 885 ईस्वी में श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य पीठ के प्रमुख नृसिंहाश्रमजी ने भी मंदिर का पुनर्निर्माण कराया।

मध्यकालीन इतिहास

  • 900–950 ईस्वी के बीच, पुरातत्वविद् संकल्या के अनुसार, उस समय भी द्वारका में श्रीकृष्ण का विशाल मंदिर विद्यमान था।
  • 1120 ईस्वी में मीनालदेवी ने मंदिर का नवीनीकरण कराया।
  • 1156 ईस्वी में भक्त बोदाना द्वारा मूर्ति ले जाने की अफवाह फैली, जिसके बाद जांच के लिए कई लोग भेजे गए। इस काल में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अनेक प्रयास हुए।
  • 1162 ईस्वी में उदयपुर के राजा राणा भीमसिंहजी ने गोमती नदी तट पर मंदिर के पुजारी परिवार को 7000 बीघा भूमि दान की, जिससे मंदिर का पुनः निर्माण हुआ।
  • 1241 ईस्वी में मोहम्मद शाह ने द्वारका पर आक्रमण किया और मंदिर को क्षति पहुंचाई। उस समय पाँच ब्राह्मण—वीराजी ठाकुर, नाथू ठाकुर, करसन ठाकुर, वलजी ठाकुर और देवासी ठाकुर—ने वीरगति पाई। बाद में उनके स्मारक स्थल को मुसलमानों ने “पंच पीर” के नाम से परिवर्तित किया।
  • 1250 ईस्वी में गुर्जर कवि सोमेश्वर ने अपने नाटक ‘उल्लघराऊ’ का मंचन श्री द्वारकाधीश के समक्ष किया।

सामाजिक और धार्मिक संघर्ष

1345 ईस्वी में अबोटिया और मीन परिवार के बीच ध्वजाधारी विवाद हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए। ऐसे विवाद मंदिर की आय के वितरण को लेकर भी होते रहे।

वैष्णव परंपरा का पुनरुद्धार

  • 1504 ईस्वी (विक्रमी संवत 1560) में श्री वल्लभाचार्यजी ने लाडवा गाँव में रुक्मिणीजी द्वारा पूजित द्वारकाधीश की मूर्ति की पुनः स्थापना की। मुस्लिम आक्रमण के समय यह मूर्ति सावित्री बावड़ी में छिपाई गई थी। बाद में मूर्ति को सुरक्षित रूप से बेट द्वारका ले जाया गया।
  • 1557 ईस्वी (विक्रमी संवत 1613) में श्री विट्ठलनाथजी ने अबोटिया और गुगली ब्राह्मणों के बीच आय विभाजन का विवाद ताम्रपत्र लिखवाकर समाप्त कराया।
  • 1559 ईस्वी (संवत 1616) में शंकराचार्य अनिरुद्धाश्रमजी ने डूंगरपुर में नई मूर्ति बनवाकर मंदिर में स्थापित की। इसी समय कवि ईसर बारोट ने अपनी रचना हरिरस भगवान द्वारकाधीश को समर्पित की।

आधुनिक काल का पुनर्जागरण

  • 1730 ईस्वी में श्री प्रकाशानंदजी ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और वाघेर राजा माप ने ब्राह्मणों पर लगने वाला कर आधा कर दिया।
  • 1861 ईस्वी में महाराजा खांदेराव ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जबकि अंग्रेजों ने युद्ध के दौरान क्षतिग्रस्त हुए शिखर की मरम्मत की।
  • 1903 ईस्वी में महाराजा गायकवाड़ ने मंदिर के शिखर पर स्वर्ण कलश चढ़वाया।
  • 1958 में शंकराचार्यजी ने फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।

स्वतंत्र भारत में संरक्षण

  • 1960 के बाद से भारत सरकार ने मंदिर की देखरेख अपने अधीन ले ली और धीरे-धीरे इसका संरक्षण एवं विकास कार्य किया गया।
  • 1965 में पाकिस्तान नौसेना ने मंदिर को नष्ट करने का प्रयास किया, किंतु भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से वह विफल रहा।

श्री द्वारकाधीश मंदिर के दर्शन और आरती का समय (Dwarkadhish Temple Darshan Timings)

भगवान श्रीकृष्ण की पवित्र नगरी द्वारका धाम में स्थित श्री द्वारकाधीश मंदिर में प्रतिदिन निश्चित समय पर आरती, पूजन और दर्शन का क्रम चलता है। यहाँ का प्रत्येक क्षण भक्ति, शांति और आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा होता है। भक्तजन मंदिर में प्रातःकालीन मंगला आरती से लेकर रात्रिकालीन शयन आरती तक भगवान के दिव्य स्वरूप के दर्शन कर सकते हैं।

सुबह के दर्शन एवं आरती का समय (Morning Darshan Timings)

मंदिर प्रातः 6:30 बजे खुलता है और दोपहर 1:00 बजे तक दर्शन होते हैं। इस दौरान श्रीकृष्ण की विभिन्न झांकियों और आरतियों का भव्य आयोजन होता है –

  • सुबह 6:30 बजेमंगला आरती
  • 7:00 से 8:00 बजे तकमंगला दर्शन
  • 8:00 से 9:00 बजे तकअभिषेक पूजा (स्नान विधि) : दर्शन बंद रहते हैं
  • 9:00 से 9:30 बजे तकश्रृंगार दर्शन
  • 9:30 से 9:45 बजे तकस्नान भोग : दर्शन बंद
  • 9:45 से 10:15 बजे तकश्रृंगार दर्शन
  • 10:15 से 10:30 बजे तकश्रृंगार भोग : दर्शन बंद
  • 10:30 से 10:45 बजे तकश्रृंगार आरती
  • 11:05 से 11:20 बजे तकग्वाल भोग : दर्शन बंद
  • 11:20 से 12:00 बजे तकसामान्य दर्शन
  • 12:00 से 12:20 बजे तकराजभोग : दर्शन बंद
  • 12:20 से 12:30 बजे तकदर्शन पुनः आरंभ
  • दोपहर 1:00 बजेअनुसार दर्शन बंद

शाम के दर्शन एवं आरती का समय (Evening Darshan Timings)

शाम के समय मंदिर पुनः 5:00 बजे खुलता है और रात 9:30 बजे तक दर्शन होते हैं। इस अवधि में श्रीकृष्ण के उठापन से लेकर शयन आरती तक अनेक धार्मिक विधियाँ संपन्न की जाती हैं।

  • 5:00 बजेउठापन (प्रथम दर्शन)
  • 5:30 से 5:45 बजे तकउठापन भोग : दर्शन बंद
  • 5:45 से 7:15 बजे तकसामान्य दर्शन
  • 7:15 से 7:30 बजे तकसंध्या भोग : दर्शन बंद
  • 7:30 से 7:45 बजे तकसंध्या आरती
  • 8:00 से 8:10 बजे तकशयन भोग : दर्शन बंद
  • 8:10 से 8:30 बजे तकदर्शन आरंभ
  • 8:30 से 8:35 बजे तकशयन आरती
  • 8:35 से 9:00 बजे तकदर्शन जारी
  • 9:00 से 9:20 बजे तकबंटा भोग और शयन : दर्शन बंद
  • 9:20 से 9:30 बजे तकअंतिम दर्शन
  • रात 9:30 बजेमंदिर के द्वार बंद

द्वारकाधीश मंदिर में दिनभर का यह सुव्यवस्थित कार्यक्रम भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं, पूजा विधि और आराधना का जीवंत अनुभव प्रदान करता है। जो भी भक्त इन समयों पर द्वारका धाम पहुँचते हैं, वे साक्षात् भगवान के दिव्य दर्शन कर अपनी भक्ति यात्रा को पूर्ण करते हैं।

ध्वजा आरोहण (Dwaja Arohan)

श्री द्वारकाधीश मंदिर की ध्वजाजी की शोभा अत्यंत विशिष्ट और अनुपम है। इसकी बनावट और स्वरूप बिल्कुल अनोखे हैं, जो इसे अन्य मंदिरों की ध्वजाओं से अलग बनाते हैं। द्वारकाधीश की यह पवित्र ध्वजा मुख्य रूप से तीन स्वरूपों में विभाजित मानी जाती है — आधिभौतिक, आध्यात्मिक, और आधिदैविक स्वरूप

ध्वजा आरोहण का महत्व (Dwaja Arohan Significance)

श्री द्वारकाधीश मंदिर की ध्वजा (ध्वजाजी) की शोभा अद्भुत और अनोखी है। इसे तीन स्वरूपों में विभाजित किया गया है —

  1. आधिभौतिक स्वरूप:
    यह ध्वजा 52 गज लंबी होती है, जिसमें 52 छोटे-छोटे झंडे जुड़े होते हैं। हर गज द्वारका नगरी के 52 प्रवेश द्वारों और यदुवंश के 52 प्रमुख अधिकारियों के प्रतीक हैं। यह ध्वजा मोक्ष द्वार और स्वर्ग द्वार दोनों का प्रतीक मानी जाती है।

  2. आध्यात्मिक स्वरूप:
    ‘ध्वजा’ शब्द स्वयं में पवित्र और सम्मानजनक है। जैसे राष्ट्रध्वज देश की प्रतिष्ठा का प्रतीक होता है, वैसे ही मंदिर की ध्वजा भगवान का सम्मान दर्शाती है। भक्त ध्वजाजी को प्रणाम कर श्रद्धा और भक्ति का भाव प्रकट करते हैं।

  3. आधिदैविक स्वरूप:
    जब यह ध्वजा विशेष विधि से तैयार की जाती है, तब यह दिव्यता का रूप धारण कर लेती है। माना जाता है कि जब तक यह ध्वजा मंदिर पर फहराई नहीं जाती, तब तक भगवान श्री द्वारकाधीश अपने भक्तों के घर निवास करते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं।

ध्वजा की 52 गज की लंबाई का रहस्य

ध्वजा की 52 गज लंबाई के पीछे गहरा आध्यात्मिक अर्थ है। भगवान श्रीकृष्ण के समय द्वारका का प्रशासन 56 यदुवंशीय अधिकारियों द्वारा संचालित था। इनमें भगवान बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध चतुर्व्यूह के रूप में विराजमान थे। जब इन चार दिव्य स्वरूपों को घटाया जाता है, तो शेष 52 अधिकारी बचते हैं — इसलिए ध्वजा की लंबाई 52 गज रखी गई। भक्त जब गोमती नदी में स्नान कर 56 सीढ़ियाँ चढ़ते हैं और ध्वजा को देखते हैं, तो वे भगवान के उस युग की झलक पाते हैं जब द्वारका धर्म, नीति और पराक्रम की नगरी थी।

ध्वजाजी के रंगों का धार्मिक महत्व

ध्वजाजी इंद्रधनुष की तरह सप्तवर्णी होती है — लाल, पीला, हरा, नीला, सफेद, गुलाबी और भगवा। हर रंग का अपना आध्यात्मिक संदेश है:

  • लाल रंग – साहस, ऊर्जा और शुभता का प्रतीक।
  • हरा रंग – शांति, समृद्धि और मानसिक स्थिरता का द्योतक।
  • पीला रंग – ज्ञान, पवित्रता और धर्म का प्रतीक।
  • नीला रंग – बल, आत्मसंयम और गहराई का द्योतक।
  • सफेद रंग – शुद्धता, शांति और सात्विकता का प्रतीक।
  • भगवा रंग – त्याग, वीरता और धर्म रक्षा का प्रतीक।
  • गुलाबी रंग – प्रेम, आनंद और सौम्यता का प्रतीक।

इन सभी रंगों का सम्मिलन भगवान श्रीकृष्ण के मेघश्याम स्वरूप और उनके सात्विक जीवन का दर्पण है। श्री द्वारकाधीश मंदिर की ध्वजा न केवल एक धार्मिक प्रतीक है, बल्कि यह भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य राज्य की पहचान भी है। कहा जाता है कि जब तक आकाश में सूर्य और चंद्रमा विद्यमान हैं, तब तक द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण का राज्य रहेगा। इसलिए जब भी आप द्वारका धाम जाएँ, ध्वजाजी का दर्शन अवश्य करें — यह आपको ईश्वर की उपस्थिति और जीवन में मोक्ष का अनुभव कराता है।

समुद्र में विलीन द्वारका नगरी – भगवान श्रीकृष्ण की पवित्र नगरी का रहस्य

गुजरात राज्य के जामनगर जिले में स्थित द्वारका नगरी (अक्षांश 22°15’ उत्तर, देशांतर 69° पूर्व) भारत की सबसे प्राचीन और दिव्य नगरियों में से एक मानी जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, यह वही पौराणिक द्वारका है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने लगभग 3500 से 5000 वर्ष पहले बसाया था। महाभारत में वर्णित है कि समय बीतने के साथ यह नगर समुद्र में समा गयाहरिवंश पुराण में उल्लेख मिलता है कि द्वारका गोमती नदी के तट पर बसी थी, जहाँ यह नदी पश्चिमी समुद्र में मिलती है। समुद्र में डूबी हुई द्वारका का रहस्य न केवल धार्मिक, बल्कि ऐतिहासिक और समुद्र-विज्ञान की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्राचीन नगरी भारत के उस अंधकार युग पर प्रकाश डाल सकती है, जिसका उल्लेख इतिहास में बहुत कम मिलता है।

द्वारकाधीश मंदिर – त्रिकाल की सुंदरता का प्रतीक

द्वारका में स्थित श्री द्वारकाधीश मंदिर या रंचोड़जी मंदिर की सात मंज़िला ऊँची इमारत 43 मीटर तक जाती है और यह गोमती नदी तथा अरब सागर के संगम पर स्थित है। मंदिर का आंतरिक भाग 13वीं शताब्दी में बना माना जाता है, जबकि सभा मंडप (लाडवा मंडप) और शिखर का निर्माण 15वीं शताब्दी में हुआ। मंदिर परिसर में प्रद्युम्नजी, देवकीजी, पुरुषोत्तमजी, कूशेश्वर महादेव के साथ-साथ आदि शंकराचार्य द्वारा 9वीं शताब्दी में स्थापित शारदा पीठ भी स्थित है।

पुराने समय में बड़े जहाज गोमती घाट तक आते थे, लेकिन 1890 में गायकवाड़ राज्य द्वारा निर्मित पत्थर की दीवार से नदी का मुहाना संकरा हो गया। आज रेत की पट्टी ने गोमती के जल को पूरी तरह समुद्र में मिलने से रोक दिया है। समुद्र तट पर स्थित समुद्रनारायण मंदिर (जिसे वरुण देवता या चक्रनारायण मंदिर भी कहते हैं) पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल है।

पुरातात्त्विक खोजें और प्राचीन सभ्यताएँ

द्वारका में की गई खुदाई में लाल पॉलिश वाले बर्तन (Red Polished Ware) और चमकदार लाल मिट्टी के पात्र (Lustrous Red Ware) प्राप्त हुए हैं, जो इस नगर के प्राचीन ऐतिहासिक अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। इन परतों से स्पष्ट होता है कि यहाँ लगभग 3500 वर्ष पहले एक समुद्री आपदा के कारण एक तटीय बस्ती नष्ट हुई थी।

अब तक आठ प्राचीन बस्तियाँ द्वारका क्षेत्र में खोजी जा चुकी हैं। पहली बस्ती 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व की थी, जो समुद्र में समा गई। इसके बाद कई बार नगर का पुनर्निर्माण हुआ। तीसरी बस्ती (1वीं शताब्दी ईसा पूर्व) में पहला मंदिर बना, जो बाद में समुद्र के प्रकोप से नष्ट हो गया। इसके ऊपर दूसरा और फिर तीसरा मंदिर बना — यह तीसरा मंदिर भगवान विष्णु या वासुदेव को समर्पित था। 12वीं शताब्दी में एक तूफ़ान से उसका छत उड़ गया और केवल दीवारें व चौखटें बचीं।

समुद्र के गर्भ में छिपे मंदिरों के प्रमाण

1979 से लेकर 1986 तक हुए समुद्री पुरातत्व अभियानों में वैज्ञानिकों ने समुद्रनारायण मंदिर से लगभग 700 मीटर दूर समुद्र तल में मंदिरों और भवनों के अवशेष खोजे। इनमें विशाल चूना पत्थर के खंड, दीवारें, मचान और बुर्ज जैसी संरचनाएँ मिलीं। कुछ संरचनाओं से चंद्रशिला (मंदिर की सीढ़ियों की पहली सीढ़ी) मिलने से पुष्टि होती है कि ये वास्तव में मंदिर परिसर के हिस्से थे।

1986 के अभियान में सीरिया और साइप्रस जैसे देशों में उपयोग होने वाले तीन छिद्र वाले पत्थर के लंगर (anchors) मिले, जिनका उपयोग 14वीं से 12वीं शताब्दी ईसा पूर्व में होता था। इससे यह प्रमाणित होता है कि द्वारका उस समय अंतरराष्ट्रीय समुद्री व्यापार का प्रमुख केंद्र रही होगी।

समुद्र के भीतर छिपा इतिहास

खुदाई के दौरान मिले अवशेष बताते हैं कि समुद्र में लगभग 600 मीटर गहराई पर आज भी मंदिरों, दुर्ग की दीवारों और विशाल निर्माणों के अंश सुरक्षित हैं। इन संरचनाओं के पत्थर के ब्लॉक्स आज भी अपने मूल स्थान पर दिखाई देते हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि यह स्थल कभी एक विकसित नगर था

द्वारका का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व

द्वारका केवल एक ऐतिहासिक स्थल नहीं, बल्कि चार धामों में से एक मोक्षधाम है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना की और यहीं से महाभारत युग का आरंभिक इतिहास जुड़ा है। समुद्र में समाई यह नगरी आज भी अपने भीतर एक अनसुलझा रहस्य समेटे हुए है — एक ऐसी दिव्य भूमि, जहाँ भगवान स्वयं राजा बनकर बसे थे।

द्वारका नगरी से जुड़ी प्रसिद्ध पौराणिक कथाएँ (Dwarka Nagari – Popular Myths)

भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका केवल इतिहास और पुरातत्व का ही नहीं, बल्कि गहन आस्था और पौराणिक रहस्यों का भी केंद्र है। यहाँ से जुड़ी अनेक लोककथाएँ और दंतकथाएँ हैं, जो इस पवित्र भूमि की दिव्यता को और बढ़ा देती हैं। आइए जानते हैं द्वारका नगरी से जुड़ी कुछ प्रमुख पौराणिक मान्यताएँ :

(1) गोपी तालाव – रासलीला और भक्तिभाव की भूमि

द्वारका से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोपी तालाव (Gopi Talav) श्रीकृष्ण भक्तों के लिए अत्यंत पवित्र स्थान है। इस तालाब की पीली, चिकनी और सुगंधित मिट्टी बहुत प्रसिद्ध है। मान्यता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन (व्रज) छोड़कर द्वारका चले आए, तो गोपियाँ उनसे मिलने के लिए व्रज से द्वारका तक आईं।

शरद पूर्णिमा की रात उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के साथ रासलीला की, और फिर परम प्रेम में लीन होकर इसी भूमि में विलीन हो गईं। कहा जाता है कि उनकी भक्ति और समर्पण से इस भूमि की मिट्टी दिव्य बन गई, इसलिए इसे ‘गोपी तालाव’ कहा जाता है। आज भी श्रद्धालु इस मिट्टी को अत्यंत शुभ मानते हैं।

(2) द्वारका – श्रीकृष्ण की राजधानी और बेट द्वारका – उनका निवास स्थान

प्राचीन मान्यता के अनुसार, द्वारका नगरी भगवान श्रीकृष्ण की राजधानी थी, जहाँ से वे धर्मसभा और राजकार्य संचालित करते थे। वहीं बेट द्वारका को उनका निज निवास माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ अपने भक्तों, गोपों और परिवारजनों के साथ रहते थे और द्वारका से ही उन्होंने धर्म और नीति के कार्यों का संचालन किया।

(3) रुक्मिणी देवी मंदिर – प्रेम, श्रद्धा और श्राप की कथा

द्वारका से लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थित रुक्मिणी देवी मंदिर भगवान श्रीकृष्ण की मुख्य पत्नियों में से एक रुक्मिणीजी को समर्पित है। इस मंदिर से जुड़ी एक रोचक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी ने महर्षि दुर्वासा को द्वारका आमंत्रित करने का निश्चय किया। दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार किया, परंतु शर्त रखी कि उन्हें घोड़े या पशु नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण और रुक्मिणी स्वयं रथ खींचकर ले जाएँगे। दोनों ने विनम्रता से यह शर्त स्वीकार कर ली। रथ चलाते समय रुक्मिणीजी को प्यास लगी, तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पदाघात से गंगा जल प्रकट किया। लेकिन महर्षि दुर्वासा इस घटना से क्रोधित हुए और उन्होंने रुक्मिणीजी को श्राप दिया कि वे श्रीकृष्ण से दूर रहेंगी। इसी कारण रुक्मिणी मंदिर आज मुख्य जगत मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर दूर स्थित है।

द्वारका की ये पौराणिक कथाएँ केवल भक्ति और प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि आस्था, त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण का संदेश भी देती हैं। हर वर्ष लाखों श्रद्धालु यहाँ आकर गोपी तालाव की मिट्टी का स्पर्श करते हैं, रुक्मिणी माता की पूजा करते हैं, और श्रीकृष्ण के दिव्य लीला स्थलों का दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते हैं।

कैसे पहुचें द्वारका – How To Reach Dwarka

📍 पता (Address)
श्री द्वारकाधीश मंदिर, द्वारका: 361 335
जिला: देवभूमि द्वारका, गुजरात- भारत


🚗 सड़क मार्ग (By Road):
गुजरात स्टेट हाईवे 25 (Gujarat State Highway 25) से होकर आप द्वारकाधीश मंदिर रोड / रिलायंस रोड / रामधुन रोड के माध्यम से मंदिर तक पहुँच सकते हैं।


🚉 रेलवे मार्ग (By Train):
द्वारका पहुँचने के लिए सबसे नज़दीकी प्रमुख रेलवे स्टेशन द्वारका रेलवे स्टेशन (DWK) है, जहाँ से मुंबई, अहमदाबाद जैसी बड़ी शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध हैं। यह मंदिर से लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
इसके अलावा, ओखा रेलवे स्टेशन (OKHA) भी एक विकल्प है, जो द्वारका से करीब 29 किलोमीटर दूर है और कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।
यात्री चाहें तो जामनगर या पोरबंदर जैसे बड़े शहरों तक ट्रेन से जाकर वहाँ से बस या टैक्सी द्वारा द्वारका पहुँच सकते हैं।


✈ हवाई मार्ग (By Air):
द्वारका के निकटतम हवाई अड्डे जामनगर हवाई अड्डा (Jamnagar Airport – JGA) और पोरबंदर हवाई अड्डा (Porbandar Airport – PBD) हैं।
जामनगर हवाई अड्डा द्वारका से लगभग 130 से 137 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यह भारत के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।
वहीं पोरबंदर हवाई अड्डा द्वारका से लगभग 95 किलोमीटर दूर है और यह भी यात्रियों के लिए एक सुविधाजनक विकल्प है।


⛵ नदी (River):
पवित्र गोमती नदी (Gomti River) द्वारकाधीश मंदिर के समीप बहती है, जिसे दर्शन और स्नान के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है।


🌐 वेबसाइट (Official Website):
🔗 www.dwarkadhish.org


📱 फ़ोन: +91- 2892-234080


🗺️ ईमेल आईडी: dwarkadhishtemple@dwarkadhish.org


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🪔 जय श्रीकृष्ण!

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