लक्ष्मी चालीसा का सार (Lakshmi Chalisa ka Saar in Hindi)
लक्ष्मी चालीसा देवी महालक्ष्मी की स्तुति और कृपा प्राप्ति का अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। इसमें माँ लक्ष्मी से भक्त अपने जीवन की सभी कठिनाइयाँ दूर करने, धन-संपत्ति, बुद्धि, और सुख-समृद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करता है।
चालीसा की शुरुआत दोहा और सोरठा से होती है, जिसमें भक्त माँ लक्ष्मी से हृदय में वास करने और अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण करने की विनती करता है। वह हाथ जोड़कर माँ से यह प्रार्थना करता है कि वे अपने भक्त के जीवन में शुभता और सौभाग्य का सुवास भर दें।
इसके बाद की चौपाइयों में देवी लक्ष्मी के स्वरूप, गुण, और लीलाओं का अत्यंत सुंदर वर्णन है — भक्त माँ लक्ष्मी को ‘सिन्धु सुता’ अर्थात समुद्र की पुत्री कहकर उनका स्मरण करता है और उनसे ज्ञान, बुद्धि और विघ्नों को दूर करने की कामना करता है। माँ को जगजननी, जगदंबा कहकर यह स्वीकार किया गया है कि वे सम्पूर्ण सृष्टि की आधारशक्ति हैं और हर प्राणी के हृदय में वास करती हैं। भक्त माँ से अपने अपराध क्षमा करने और कृपा दृष्टि डालने की विनती करता है। उन्हें ज्ञान, बुद्धि और सुख की दात्री कहा गया है जो अपने उपासकों के संकट हर लेती हैं। चालीसा में उल्लेख है कि जब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर मंथन किया, तब माँ लक्ष्मी चौदह रत्नों में से प्रकट हुईं और उन्होंने विष्णु को अपना पति स्वीकार किया। जब-जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर अवतार लिया, माँ लक्ष्मी भी उनके साथ विभिन्न रूपों में प्रकट हुईं — जैसे रामावतार में सीता बनकर जनकपुर में प्रकट हुईं।
देवी लक्ष्मी की असीम शक्ति और कृपालु स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जो भक्त छल-कपट छोड़कर सच्चे मन से उनका पूजन और लक्ष्मी चालीसा का पाठ करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। उसे जीवन में धन, पुत्र, सुख-संपत्ति और शांति प्राप्त होती है। जो व्यक्ति नित्य श्रद्धा भाव से यह चालीसा पढ़ता या सुनता है, उसके जीवन से सभी रोग, दुःख और संकट दूर हो जाते हैं। विशेष रूप से, संतानहीन, निर्धन या रोगी व्यक्ति यदि श्रद्धा से यह पाठ करवाए, तो उसे माँ की कृपा अवश्य प्राप्त होती है। बारह महीने नियमित रूप से पूजा करने वाला भक्त जीवन में कभी अभाव नहीं देखता और उसका घर सदा लक्ष्मी-कृपा से भरपूर रहता है।
अंत में भक्त रामदास माँ लक्ष्मी से करुणा की याचना करता है — वे उसकी विपत्तियाँ दूर करें, भक्ति प्रदान करें और दर्शन देकर दुःख हर लें। भक्त विनम्रता से स्वीकार करता है कि उसे न तो ज्ञान है न बुद्धि, अतः माँ ही उसकी रक्षा करें और उसके हृदय में प्रेम और भक्ति का संचार करें। अंतिम दोहे में माँ लक्ष्मी को दुःख हरिणी और शत्रु विनाशिनी कहा गया है। भक्त बार-बार माँ से विनती करता है कि वे शीघ्र ही उसके जीवन से दुख और भय मिटा दें और अपने दास पर स्नेह और कृपा की वर्षा करें।
सार रूप में, लक्ष्मी चालीसा धन, सौभाग्य, बुद्धि, भक्ति और शांति प्राप्ति का एक दिव्य मार्ग है। जो श्रद्धा, विश्वास और नियमपूर्वक इसका पाठ करता है, उसके जीवन में माँ लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है। यह पाठ न केवल भौतिक समृद्धि देता है, बल्कि मानसिक शांति और आध्यात्मिक बल भी प्रदान करता है।
श्री लक्ष्मी चालीसा (Shri Lakshmi Chalisa)
॥ दोहा॥
मातु लक्ष्मी करि कृपा,
करो हृदय में वास ।
मनोकामना सिद्घ करि,
परुवहु मेरी आस ॥
॥ सोरठा॥
यही मोर अरदास,
हाथ जोड़ विनती करुं ।
सब विधि करौ सुवास,
जय जननि जगदंबिका ॥
॥ चौपाई ॥
सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही ।
ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥१॥
तुम समान नहिं कोई उपकारी ।
सब विधि पुरवहु आस हमारी ॥२॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा ।
सबकी तुम ही हो अवलम्बा ॥३॥
तुम ही हो सब घट घट वासी ।
विनती यही हमारी खासी ॥४॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी ।
दीनन की तुम हो हितकारी ॥५॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी ।
कृपा करौ जग जननि भवानी ॥६॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी ।
सुधि लीजै अपराध बिसारी ॥७॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी ।
जगजननी विनती सुन मोरी ॥८॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता ।
संकट हरो हमारी माता ॥९॥
क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो ।
चौदह रत्न सिन्धु में पायो ॥ १०॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी ।
सेवा कियो प्रभु बनि दासी ॥११॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा ।
रुप बदल तहं सेवा कीन्हा ॥१२॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा ।
लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा ॥१३॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं ।
सेवा कियो हृदय पुलकाहीं ॥१४॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी ।
विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी ॥१५॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी ।
कहं लौ महिमा कहौं बखानी ॥१६॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई ।
मन इच्छित वांछित फल पाई ॥१७॥
तजि छल कपट और चतुराई ।
पूजहिं विविध भांति मनलाई ॥१८॥
और हाल मैं कहौं बुझाई ।
जो यह पाठ करै मन लाई ॥१९॥
ताको कोई कष्ट नोई ।
मन इच्छित पावै फल सोई ॥२०॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि ।
त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी ॥२१॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै ।
ध्यान लगाकर सुनै सुनावै ॥२२॥
ताकौ कोई न रोग सतावै ।
पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै ॥२३॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना ।
अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना ॥२४॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै ।
शंका दिल में कभी न लावै ॥२५॥
पाठ करावै दिन चालीसा ।
ता पर कृपा करैं गौरीसा ॥२६॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै ।
कमी नहीं काहू की आवै ॥२७॥
बारह मास करै जो पूजा ।
तेहि सम धन्य और नहिं दूजा ॥२८॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही ।
उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं ॥२९॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई ।
लेय परीक्षा ध्यान लगाई ॥३०॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा ।
होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा ॥३१॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी ।
सब में व्यापित हो गुण खानी ॥३२॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं ।
तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं ॥३३॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै ।
संकट काटि भक्ति मोहि दीजै ॥३४॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी ।
दर्शन दजै दशा निहारी ॥३५॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी ।
तुमहि अछत दुःख सहते भारी ॥३६॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में ।
सब जानत हो अपने मन में ॥३७॥
रुप चतुर्भुज करके धारण ।
कष्ट मोर अब करहु निवारण ॥३८॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई ।
ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई ॥३९॥
रामदास अब कहाई पुकारी।
करो दूर तुम विपति हमारी॥४०॥
॥ दोहा॥
त्राहि त्राहि दुख हारिणी,
हरो वेगि सब त्रास ।
जयति जयति जय लक्ष्मी,
करो शत्रु को नाश ॥
रामदास धरि ध्यान नित,
विनय करत कर जोर ।
मातु लक्ष्मी दास पर,
करहु दया की कोर ॥
प्रसिद्ध “श्री लक्ष्मी चालीसा” – वीडियो :
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