श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय १६ : दैवासुरसंपद्विभागयोग – सारांश
श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय 16 में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य के स्वभाव और उसके भीतर मौजूद दैवी (Divine) और आसुरी (Demoniac) गुणों का विस्तृत वर्णन किया है। यह अध्याय सिखाता है कि किस प्रकार मनुष्य अपने आचरण और विचारों से मोक्ष या बंधन की दिशा में अग्रसर होता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं — दैवी गुणों से युक्त व्यक्ति निर्भय, मन से शुद्ध, आत्मज्ञान में दृढ़, दानी, इन्द्रियसंयमी, यज्ञनिष्ठ, शास्त्रों का अध्ययन करने वाला, तपस्वी और सत्यवादी होता है। वह अहिंसा, क्षमा, शांति, करुणा, विनम्रता, लज्जा, धैर्य, पवित्रता, क्रोधरहितता और लोभमुक्त जीवन जीता है। ऐसे लोग परमात्मा की भक्ति में स्थिर रहकर धर्म के मार्ग पर चलते हैं और अंततः मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य पाखंड, अभिमान, दम्भ, क्रोध, कठोरता और अज्ञानता से भरे होते हैं। वे यह नहीं समझते कि क्या करना उचित है और क्या अनुचित। उनमें न तो सत्यता होती है, न शुद्धता, और न ही किसी प्रकार का सदाचरण। वे मानते हैं कि यह संसार बिना ईश्वर के है और केवल कामेच्छा और भौतिक आकर्षण से उत्पन्न हुआ है।
ऐसे लोग अपनी वासना, अभिमान और पाखंड में डूबे रहते हैं। वे असीम इच्छाओं, लालच और क्रोध से प्रेरित होकर धन-संपत्ति के पीछे भागते हैं, और जीवन का लक्ष्य केवल भोग और इन्द्रिय-सुख मानते हैं। उनका अहंकार उन्हें यह सोचने पर विवश करता है — “मैं ही शक्तिशाली हूँ, मैं ही सुखी हूँ, मेरे समान कोई नहीं।” इस प्रकार के विचार उन्हें मोह, भ्रम और पाप के मार्ग पर ले जाते हैं। भगवान बताते हैं कि इस तरह के असत्य और पापपूर्ण कर्मों में रत व्यक्ति अंततः घोर अंधकार और नरक की स्थिति में गिरता है। वे बार-बार आसुरी योनि में जन्म लेते हैं और परमात्मा तक पहुँचने में असफल रहते हैं।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि काम (वासना), क्रोध, और लोभ — ये तीन नरक के द्वार हैं। जो मनुष्य इनसे मुक्त हो जाता है, वही अपने कल्याण का मार्ग प्राप्त करता है। जो व्यक्ति शास्त्रों की आज्ञा का पालन करता है, वह धर्म के मार्ग पर स्थिर होकर परम लक्ष्य यानी मोक्ष को प्राप्त करता है। परंतु जो मनुष्य शास्त्रों को त्यागकर अपने मन की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है, वह न तो शांति पाता है, न सिद्धि, और न ही ईश्वर की प्राप्ति। इसलिए भगवान अर्जुन को उपदेश देते हैं — “कार्य और अकार्य का निर्णय शास्त्रों के अनुसार करो, क्योंकि वही सच्चा मार्ग दिखाने वाले हैं। जो शास्त्रानुसार जीवन जीता है, वही सच्चे अर्थों में धर्म, अर्थ और मोक्ष प्राप्त करता है।”
भगवद गीता का यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि दैवी गुण हमें ईश्वर और मोक्ष की ओर ले जाते हैं, जबकि आसुरी गुण हमें बंधन और विनाश की ओर। इसलिए, मनुष्य को लोभ, क्रोध और वासना से दूर रहकर ईश्वरभक्ति, सत्य, करुणा और आत्मसंयम का मार्ग अपनाना चाहिए।
।। अथ षोडशोऽध्यायः ।।
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।1।।
अहिंसा सत्यम्क्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्तवं मार्दवं ह्णीरचापलम्।।2।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।3।।
श्री भगवान बोलेः भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण और वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता। मन, वाणी और शरीर में किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात् चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की निन्दा न करना, सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरूद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि तथा किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव – ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं(1,2,3)
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।4।।
हे पार्थ ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।(4)
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायसुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।5।।
दैवी-सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गयी है। इसलिए हे अर्जुन ! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है।(5)
द्वौ भूतसर्गो लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।6।।
हे अर्जुन ! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्यसमुदाय दो ही प्रकार का हैः एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृतिवाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य-समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन(6)
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।7।।
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्यभाषण ही है।(7)
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।8।।
वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?(8)
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।9।।
इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सबका अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं।(9)
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद् गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।10।।
वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं।(10)
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।11।।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान्।।12।।
तथा वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं। वे आशा की सैंकड़ों फाँसियों में बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।(11,12)
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।13।।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानापि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलनान्सुखी।।14।।
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।15।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता:।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16।।
वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायेगा। वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ। मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान तथा सुखी हूँ। मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्तवाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं।(13,14,15,16)
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमान मदान्विताः
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।17।।
वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं।(17)
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।18।।
वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामि से द्वेष करने वाले होते हैं।(18)
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।19।।
उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में डालता हूँ।(19)
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।20।।
हे अर्जुन ! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।(20)
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।21।।
काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।(21)
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।22।।
हे अर्जुन ! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है।(22)
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।23।।
जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही।(23)
तस्माचछास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।24।।
इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है।(24)
ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडषोऽध्यायः ।।16।।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दैवासुरसंपद्विभागयोग नामक सोलहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।
प्रसिद्ध “ भगवद गीता अध्याय १६ ” – वीडियो :
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जय श्रीकृष्ण! 🌺